शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

बहुत बुरे दौर से गुजरते हुए.......जिन्दगी ऐसी ही दिखी

                                 जिन्दगी



  •               जिन्दगी तुम तो बहरूपिया हो गए हो नित नए रूप दिखा रहे हो.

  •               जिन्दगी तुम कसाई हो गए हो रोज मेरे सपनो को जिबह करते हो.

  •               जिन्दगी तुम बहुत वजनी हो गये हो मुझसे  उठते ही नहीं हो.

  •               जिन्दगी तुम बेईमान हो सिर्फ मेरे मर्म पर चोट करते हो.

  •               जिन्दगी तुम बस पत्थर हो दिल को शीशा ही समझते हो.

  •               जिन्दगी तुम जूता हो सिर्फ मुझे मसलना ही तुम्हें पसंद है.
  •  
  •              जिन्दगी तुमने बहुत कांटें बिछा दिए,छलनी पावं अब रखें कहाँ.

  •              जिन्दगी कभी अच्छे रूप में कम से कम सपनो में तो आओ.

  •               जिन्दगी बहुत रूला दिया कभी हसाँ के भी दिखाओ.

  •               जिन्दगी तुमने बहुत बिगाड़ दिया कभी संवार के दिखाओ.

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

एक उद्गार


सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नही विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,

विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं

ये कविता मुझे बचपन से बहुत अच्छी लगती है.पर अभी जब मैं कई तरह की विपत्तियों से घिरी हुईं हूँ ,तो ये पंक्कितियां मुहं चिदाती सी प्रतीत हो रहीं हैं.किसी मंगल कार्य में लगा व्यक्ति अ-मंगल से यूँ ही बचता रहता है.उसपर यदि विपत्तियों  के काले बादल अचानक से छा  जाये .....सच तो ये है की कायर हो या शूरमा विपत्ति जब बिना पदचाप के हमला करती है तो सभी दहल जातें हैं. जब हमला चौ -  तरफा   हो,तो धीरज की कौन खबर रखता है,होश बची रह जाये तो बहुत है. विघ्न को भला कोई क्यूँ कर गले लगयेगा,वह तो खुद ही गले पद जाती है.कांटे कभी रह बनाने नही देते है अपने से,आपके पावँ को छलनी-छलनी हो कर वेदना सह कर ही शायद राह  मिले.........

रविवार, 2 सितंबर 2012

व्यथा

मेरे अपने मुझसे नाराज यूँ है, की दिल कहीं  लगता ही नहीं है .

मेरे अपने मुझसे नाराज क्यूँ है,पता हो तो नाराजगी दूर करूं.

तुम्हारी ख़ामोशी मुझे काट रही है,आओ पास तो कुछ बात बढे 

छोटी छोटी बातों से हो नाराज,क्यूँ ख़ुशी से यूँ  दामन छुड़ा लेते हो. 

तुम  हो उदास और मैं भी हूँ बेचैन,काश तुम को  गले हम लगा लेते..

मेरे अपने मुझसे नाराज यूँ है, की दिल कहीं  लगता ही नहीं है .

मैं समझी नही तुम रोये  क्यूँ ,मेरी ख़ुशी से तुम नाराज थे  क्यूँ ,

गैरों को तुम अपना बना बैठे,अपने तुम्हे अब चुभने लगें हैं.

दूसरों की ख़ुशी में  चहकते फिरे थे,अपनों से मानों सरोकार ही नहीं है.

ऐसे न बदलो ,हम मर जायेंगे,ख़ुशी तुम बिन अधूरी पड़ी है.

सोमवार, 20 अगस्त 2012

यथार्थ - ख़ुशी को भी अकेले आने डर लगता है.


ख़ुशी को भी  अकेले आने डर लगता है.


कहते हैं दुःख कभी अकेले नहीं आती है,
पर मुझे तो लगता है .......
सुख भी कभी अकेले नहीं आती है.
कभी विशुद्ध-निखालिस ख़ुशी देखी है?
मैंने तो नही देखी......
ख़ुशी की बदली छाती तो जरूर है,
पर किनारों पर कालिमा भी ,
साथ देख ही जाती है .
हंसी,ख़ुशी के साथ रंग-बिरंगी .
फ्राक पहने इठलाती है.
पर नाखुशी के छोटे पैबंद ,
मुहं चिदाते रहते हैं.
एक की मनोकामना पूरी हुई,ख़ुशी आई
दूसरा अपनी अधूरी आकांक्षों से,
बिसूरता ही दीखता है.
ख़ुशी कभी खुल कर आओ,
सिर्फ सुख ही साथ लाओ.

गुरुवार, 26 जुलाई 2012

नाराजगी



 नाराजगी 

तुम्हारी बातें अब मुझको छूती नहीं हैं,
कुछ भी कहो मुझको कुछ होती नहीं है,

तुम मेरे जान,जिगर और साँस थे,
मेरे लिए अब तुम बस एक आस हो.
जब मेरे जीवन में तुम आये,
आते ही मेरे मानस पर तुम छाए.
मैंने अपने सारे फर्ज निभाए,
हमारे रिश्ते को खा गयीं सर्द हवाएं .

तुम्हारी बातें अब मुझको छूती नहीं हैं,
कुछ भी कहो मुझको कुछ होती नहीं है,
कैसे जीवन का पहिया है चलता,
प्राथमिकतायें जीवन का सदा है बदलता.
जहाँ मैं थी वहाँ कोई और है,
जीवन का एक नया दौर है.

तुम्हारी बातें अब मुझको छूती नहीं हैं,
कुछ भी कहो मुझको कुछ होती नहीं है,
मेरी कमी अब तुम को खलती नहीं है,
बेरुखी तुम्हारी अब रूलाती नहीं है.
रूखे से रुखा है व्यवहार तुम्हारा,
लगता नही की तुम थे कलेजा हमारा.
कभी तुम थे मेरे पलकों पर पलते,
रिश्ता अब हमारा हैं पलकें भिगोतें .


तुम्हारी बातें अब मुझको छूती नहीं हैं,
कुछ भी कहो मुझको कुछ होती नहीं है,

बातें न बद जाए सो सहती हूँ तुम को,
नाता न टूटे सो कुछ कहती नहीं तुमको.
तुम आओ न आओ तुम्हारी है मर्जी,
पता नहीं मैंने क्या गलती करदी.
अगर मैं हूँ एक भूली बिसरी याद,
तो मुझको भी नहीं करनी तुम्हारी बात.

तुम्हारी बातें अब मुझको छूती नहीं हैं,
कुछ भी कहो मुझको कुछ होती नहीं है,


मंगलवार, 12 जून 2012


सखी 

मेरे लिए तो आप हैं हिंदी की एक रचनाकार,
जो करती हैं शब्दों से चमत्कार ,
आपके शब्द लेते हैं मेरे मानस में विशेष आकार.
निकल जातें हैं मेरे मन से सारे विषय-विकार,
और किसी नई मित्र बनने के नही है कोई आसार
.ईश्वर को देती हूँ धन्यवाद आँचल पसार.
आप सा मित्र मिला है उसका आभार.


क्या बोलूं प्रवीणा, ये तो अपूर्णीय क्षति है. मुझसे मित्र जल्दी बनते नहीं जो बनें हैं वो आजीवन मित्रता की अटूट बंधन में होतें हैं. उन गिने चुने अपनों से एक का चले जाना ने अपनों की गिनती कम कर दी. मैं तो विज्ञान की विद्यार्थी थी हिंदी की उच्च साहित्य सेपरिचय मैंने अपर्णा के सानिद्ध्य में ही प्राप्त किया. अथाह भण्डार था उनके पास साहित्य का, और इसी कारन मैं उनकी तरफ आकर्षित हुई थी. ये कोई २५-२६ वर्ष पहलें की बात है. "आ सखी" समूह में भी उन्होंने ही मुझे जोड़ा था. हमारी शादी , बच्चे सब लगभग साथ ही के थें. तीन भाइयों से छोटी अपर्णा बहुत कुशल गृहणी, कुक, बेटी,बीवी और बहन थी. दो महीने में शादी का ३०वां सालगिरह मनाती. अपने पीछे दो बेटों और पति को तनहा कर गयी है. बच्चे अभी बस सेटेल होने ही वालें हैं. कुछ महीनों से आये दिन मरने की बातें करने लगी थी. तीन महीने पहले जब हम तीनों दोस्त मिलें थें तो बोलने लगी, "मेरे बेटों की शादी तुम दोनों को ही करनी होगी, मुझसे नहीं हो पायेगा". हमनें हँसतें हुए कहा था, ठीक है न तुम बैठे बैठे आर्डर करना हम सब करेंगे" स्लिम होने के नाम पर अकारण दुबली और कमजोर होती जा रही थी. अस्थमा का अटैक शायद बहाना हो गया.

रविवार, 10 जून 2012

क्या हम सब सिर्फ नियति के हाथ का खिलौना हैं?

क्या हम सब सिर्फ  नियति के हाथ का खिलौना हैं?

  कहा तो यही जाता है की इन्सान अपनी तकदीर खुद रचता  है,अपने हाथो की लकीर वह खुद बनाता है .खुदी को कर बुलंद इतना.....या फिर भगवन भी उसी की मदद करता है.....इत्यादि-इत्यादि.पर क्या वाकई में ऐसा हो पाता है?हम सोचते कुछ  हैं हो कुछ और जाता है.महीनों से या कह सकतें हैं कभी सालों से किसी बात की सारी तैयारी ध्वस्त हो जाती है,नियति कुछ और ही माया कर जाती है.यह सिर्फ किसी घटना या परिस्थिति के लिए सच नही होता है,कभी कभी किसी व्यक्ति पर हम इतना विश्वास कर लेतें हैं पर वो उस लायक नहीं होता है और कभी कोई बिलकुल अनजाना एकदम अपना हो जाता है.शायद हमारी इन्द्रियां इतनी जाग्रत नहीं होतीं हैं कि हम भविष्य का सही अनुमान कर सकें.
    नियति हमेशा क्रूर नही होती है,पर जब अपना सोचा -चाहा बात बनती नहीं है तब उस वक्त ऐसा महसूस होता है....कि नियति हमारे विरुद्ध है.हम दुखी होते हैं,किस्मत को कोसते भी हैं.फिर धीरे धीरे परिस्थितियों में इंसान ढल जाता है.ऐसा नही है कि प्रकृति हमेशा हमारे विरूद्ध ही षड्यंत्र करती है,कभी कभी नियति चमत्कार भी दिखाती है,जहाँ इन्सान कि बुधि काम करना बंद कर देती है.ऐसा कम ही महसूस होता है क्यूँ कि अधिकतर हम  अपने ऊपर किस्मत कि मेहरबानियों को  नही गिनते है....
 फिर भी इतना तो मैं मानती ही हूँ कि भगवन उसी कि मदद करता है जो कोशिश करतें हैं,इसी विश्वास पर दुनिया कायम है...हमारी कोशिशे जारी हैं.नियति जितना खेले हमारे साथ .....

गुरुवार, 31 मई 2012

पंखा लगे नगीना

टप- टप टपके पसीना 
गर्मी का महीना
पंखा लागे नगीना
गर्मी का महीना.
बिजली कभी रहे न
गर्मी का महीना.
झुलसा  घर और अंगना

गर्मी का महीना.
बादल कहीं दिखे न
गर्मी का महीना.
टप-टप टपके पसीना
पंखा लागे नगीना
गर्मी का महीना.

रविवार, 27 मई 2012

नारी तुम अबला नहीं सबला हो.......


नारी की बेचारगी और बेबसी उसकी पर आश्रिता  होने से जुडी है.पहले जब स्त्री का  समाज के सबसे निचली तबके के समान स्थिति थी,वह सिर्फ एक भोग्या और बच्चे जन्म देने वाली थी.इसी से तब के लिखे वेद-पुराण और मन्त्र इत्यादि में इसी रूप में उसकी व्याख्या है.ये पुरानी बात है.....इस को ले कर आज दुखी न हों .आज समाज के सोच में बदलाव आ गया/रहा है.शिक्षा ने जागरूकता की मशाल जला दी है.आज नारी सिर्फ किसी बेटी/पत्नी/माँ  नहीं है,वो एक डॉक्टर/इंजिनियर/अध्यापिका/राष्ट्रपति/...........और भी न जाने क्या क्या है.अब भेद नारी या पुरुष की नही शिक्षित और अ शिक्षित की है.यदि इक्छाशक्ति हो आज मौके बहुत हैं,खुद को साबित करने को,अपनी बेटी बहन को पहचान दिलाने के लिए.अपने आस-पास बहुतेरे उदाहरण मिल जायेंगे जहाँ एक स्त्री अपनी पढाई ,काम-काज,गुणों इत्यादि से पहचानी जाती है.
मेरी भी दो बेटियां हैं,मैं उन्हें अपना  "धन "मानती हूँ न की पराया.

शनिवार, 26 मई 2012

शोषण


          शोषण 
 कुछ दिनों पहले क़ि बात है, मेरी महरी सरस्वती  बहुत खुश थी क्यूँ की उसके साथ उसकी बेटी,मनीषा  आई हुई थी काम करने.लगभग ६ महीने पहले ही उसने किसी मनपसन्द लड़के से भाग कर शादी की थी.उसके चले जाने से मेरी महरी के काम करने के घर आधे हो गये थे,जाहिर सी बात थी महरी बिलकुल खुश नही थी अपनी बेटी की शादी से.सरस्वती बोल रही थी बड़ा ही बुरा ससुराल है मनीषा का,चार चार ननदें है पर सारा काम इसे ही करना पड़ता है.....बहुत शोषण करतीं हैं मेरी बच्ची का.अब नही भेजूंगी इसे ससुराल.
   अब सुबह शाम मनीषा काम पर पहले की तरह आने लगी.१-२ दिनों में ही सरस्वती ने ३ घर और पकड़ लिए थे,अब बेटी जो आ गयी थी.मैं सोच में पड़ गयी क़ि कौन शोषण कर रहा है......

शनिवार, 19 मई 2012

नजरिया --

                              नजरिया --

      जिस तरफ तुम हो वहाँ से वही दीखता है,जिस तरफ मैं  हूँ वहाँ से यही दीखता है.
         .... गलत तुम भी नही , गलत मैं भी नहीं.

   बात नजरिये की है.एक ही बात का तुम कुछ और मतलब निकलते हो,मैं कुछ और.
         .... गलत तुम भी , नही गलत मैं भी नहीं.
    विचारों का न मिलना सबसे बड़ी विडम्बना है
     तुम कहते हो गिलास आधी खाली है,मैं कहती हूँ आधी तो भरी है.
      ....सही तुम भी हो,सही मैं भी हूँ.

      तुम जहाँ खड़े  हो उधर से विरानियाँ ही दिखती है,पर जहाँ मैं हूँ वहाँ से वहीँ मुझे रंगीनियाँ  भी  दिख रहीं है
   ..कैसे कहूँ  गलत कौन है.
     उसमे तुम्हे कमियाँ ही कमियां दिखती हैं पर मुझे तो कुछ सम्भावनाएं भी झाकती   दिख रहीं हैं
 .....  कैसे कहूँ कौन सही है

     तुम्हें वहाँ सिर्फ राख और मलबा ही नजर आ रहा है,
   पर मुझे शायद राख में दबी चिंगारी और मलबे से हिलती जिंदगियां भी महसूस हो रही हैं.
 ... . .बात नजरिये की है
 अपनी नकरात्मक चश्मे को बदल डालो.सकारात्मक शीशे में  कुछ और ही तुम को नजर आएगा.
  ......शायद अबकी बार  मैं ही सही हूँ.

.फल की परम्परा


.फल की परम्परा


सविता जी लगभग २०-२५ वर्षो में मेरे पडोस में रहतीं है.कुछ दिनों से उन्हें बहुत परेशान देख रही थी,मुझसे रहा नही जा रहा था.उनका  भाव-भंगिमा उनके दुखो को बयाँ कर रही थी.अभी ८ दिन पहले ही तो बेटे के पास से घूम कर आयीं थी.मैंने थोडा सा कुरेदा तो उनके आसूं निकल गये.क्या बताउं इतने शौक से बेटे की शादी की थी.मेरी सास ने जो मुझे नही किया था मैंने सब किया.मैंने अपने सारे जेवर बहू को पहना दिए थे,आप तो जानती ही हैं मेरी सास ने मुझे एक भी जेवर नही  नही दिया  था.सोचा था इतना  देना लेना करुँगी   तो बहू सर-आँखों पर रखगेगी..पर इज्जत देना तो दूर,वो तो मुझसे सीधी मुह बात भी नही करती है.मैंने सुना वो मेरे बेटे को बोल रही थी की मेरी सारी गर्मी की छुट्टियाँ आपकी मम्मी जी सेवा में बीत रही है.फिर मैं रुक कर क्या करती,अगली ट्रेन से लौट आई.बहुत ही बुरी बहू मिल गयी है,ठीक ही है भगवान ने उसे भी २ बेटे दिए हैं,एक दिन उसे जरूर फल मिलेगा.

      मुझे अचानक १५-२० साल पहले की याद हो आई,जब सविता जी की सास आयीं हुई थी और इन्होने उनका जीना दूभर  कर रखा था.उनकी गरीबी पर हँसती,गहना-जेवर ले कर ताने मारती.बेचारी विधवा सास,ताने बेइज्जती सहती रहती,पर इन्होने उन्हें वापस गाँव भेज कर ही दम लिया था.आज भी ८०-८५ साल की इनकी सास बड़ी मुश्किल से अपनी जीवन की गाडी गाँव में खीच रहीं  हैं. ये बड़ी हिकारत से उन्हें यहीं से लंबी उम्र के लिए उन्हें कोसती रहती है.

  आज इनकी बातो को सुन कर लगा ,समय का पहिया घूम चूका है, पता नही कौन फल भोग रहा है.....या भुगतेगा....

शुक्रवार, 18 मई 2012

हमारे आस-पास इतना कुछ घटित होता है,कुछ बातें रोजमर्रा की होती हैं जिनपर कोई ध्यान   नही जाता है.पर कभी कभी कुछ ऐसा होता जो मन को जकझोर देतीं हैं .दिल मजबूर कर देता है कलम उठाने को.