मंगलवार, 12 जून 2012


सखी 

मेरे लिए तो आप हैं हिंदी की एक रचनाकार,
जो करती हैं शब्दों से चमत्कार ,
आपके शब्द लेते हैं मेरे मानस में विशेष आकार.
निकल जातें हैं मेरे मन से सारे विषय-विकार,
और किसी नई मित्र बनने के नही है कोई आसार
.ईश्वर को देती हूँ धन्यवाद आँचल पसार.
आप सा मित्र मिला है उसका आभार.


क्या बोलूं प्रवीणा, ये तो अपूर्णीय क्षति है. मुझसे मित्र जल्दी बनते नहीं जो बनें हैं वो आजीवन मित्रता की अटूट बंधन में होतें हैं. उन गिने चुने अपनों से एक का चले जाना ने अपनों की गिनती कम कर दी. मैं तो विज्ञान की विद्यार्थी थी हिंदी की उच्च साहित्य सेपरिचय मैंने अपर्णा के सानिद्ध्य में ही प्राप्त किया. अथाह भण्डार था उनके पास साहित्य का, और इसी कारन मैं उनकी तरफ आकर्षित हुई थी. ये कोई २५-२६ वर्ष पहलें की बात है. "आ सखी" समूह में भी उन्होंने ही मुझे जोड़ा था. हमारी शादी , बच्चे सब लगभग साथ ही के थें. तीन भाइयों से छोटी अपर्णा बहुत कुशल गृहणी, कुक, बेटी,बीवी और बहन थी. दो महीने में शादी का ३०वां सालगिरह मनाती. अपने पीछे दो बेटों और पति को तनहा कर गयी है. बच्चे अभी बस सेटेल होने ही वालें हैं. कुछ महीनों से आये दिन मरने की बातें करने लगी थी. तीन महीने पहले जब हम तीनों दोस्त मिलें थें तो बोलने लगी, "मेरे बेटों की शादी तुम दोनों को ही करनी होगी, मुझसे नहीं हो पायेगा". हमनें हँसतें हुए कहा था, ठीक है न तुम बैठे बैठे आर्डर करना हम सब करेंगे" स्लिम होने के नाम पर अकारण दुबली और कमजोर होती जा रही थी. अस्थमा का अटैक शायद बहाना हो गया.

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