रविवार, 2 सितंबर 2012

व्यथा

मेरे अपने मुझसे नाराज यूँ है, की दिल कहीं  लगता ही नहीं है .

मेरे अपने मुझसे नाराज क्यूँ है,पता हो तो नाराजगी दूर करूं.

तुम्हारी ख़ामोशी मुझे काट रही है,आओ पास तो कुछ बात बढे 

छोटी छोटी बातों से हो नाराज,क्यूँ ख़ुशी से यूँ  दामन छुड़ा लेते हो. 

तुम  हो उदास और मैं भी हूँ बेचैन,काश तुम को  गले हम लगा लेते..

मेरे अपने मुझसे नाराज यूँ है, की दिल कहीं  लगता ही नहीं है .

मैं समझी नही तुम रोये  क्यूँ ,मेरी ख़ुशी से तुम नाराज थे  क्यूँ ,

गैरों को तुम अपना बना बैठे,अपने तुम्हे अब चुभने लगें हैं.

दूसरों की ख़ुशी में  चहकते फिरे थे,अपनों से मानों सरोकार ही नहीं है.

ऐसे न बदलो ,हम मर जायेंगे,ख़ुशी तुम बिन अधूरी पड़ी है.

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