रोज सूरज निकलता है ,दिन होता है -रात होती है। इंसान का जीवन इसी चक्र में चलता जाता है। रात - दिन , सुबह -शाम ,जीवन -मृत्यु के चक्र के अलावा एक और चक्र होता है सुख -दुःख का। अच्छा भला व्यक्ति का जीवन गुजर रहा होता है ,ढर्रे पर चलती जिंदगी। सुख दुःख एक निश्चित मात्रा में आना जाना करते रहते हैं ,निश्चित वक़्त के लिए कि अचानक संतुलन बिगड़ने लगता है ,किसी एक की आमद दुसरे से अधिक हो जाती है। जब कुछ अधिक ही चाहतों का कत्लेआम होने लगता है ,मन को कुछ अधिक कुचल दिया जाता है नियति द्वारा। हम गलत पर गलत साबित होते जाते हैं ,पीड़ा ,व्यथा और दुर्दशा हावी होने लगती है। ये दुःख की अवस्था बड़ी ही कठिन होती है. सारे निर्णय गलत ,हम गलत। कभी कभी इतनी अन्धकार छा जाती है कि जीवन में ,मानस पर कि जुगनू रूपेण छोटी खुशियाँ अपना एहसास नहीं करा पातीं हैं। मैं गुजरी हूँ दुःख की लम्बी काली स्याह लम्हों से। एक के बाद एक आतीं मुसीबतें संभलने/ सँभालने का मौका नहीं देती है.
अपनी गर्व अपनी जिंदगी की पूँजी को बिखरते हुए देखना ,रिश्तों को रंग बदलते महसूस करना। स्वयं को मिटते हुए /गिरते हुए देखना ,जिन्दा नरक होते हैं। दुःख के क्षण कठिन होते हैं पर सबसे बड़े शिक्षक होते हैं। ये जो सीखा जातें हैं वो कोई पुस्तक कोई अध्यापक नहीं पढ़ा सकते हैं। विपत्ति काल में व्यक्ति का अहम पूरी तरह नष्ट हो जाता है ,जितना ज्यादा दुखों के भवंर में फंसता है उतना उसका स्वयं अहम अहंकार का नाश होता जाता है। ना दिन की होश रहती है ना रात की ,न भूख न प्यास। तपस्वी हो व्यक्ति प्रभु भक्ति में डूब जाता है। ईश्वर के समक्ष घिघियाते हुए वो अपनी भूलो की क्षमा याचना करता है . दुःख दुर्दशा दुर्दिन व्यक्ति को निचोड़ लेते हैं। जीवन - सार सार को गहि रहे ,थोथा देय उड़ाय।
कभी तो ईश्वर को व्यक्ति पर दया आती है ,कभी तो ग्रहों के चाल बदलते हैं। कभी कभी हताशा की घनी बदली के बीच से चमकता हुआ सूरज भी दिख पड़ता है। एक दो काम कुछ बन जाते हैं तो महसूस होता कि शायद किस्मत कभी दरवाजा भी खोल देगी। दुखों के कीचड में स्नान कर व्यक्ति कमल की ही मानिंद निर्मल हो पल्लवित होता है। ज्यूँ तप कर तपस्वी तेजस्वी हो जाता है ,घनघोर विपदा के पश्चात व्यक्ति वैसा ही धुला- पुछा स्वच्छ निर्मल हो विकसित होता है। किस्मत के मारे को कंगले को जो भी थोड़ी सी कृपा मिलती है वह नतमस्तक हो शुक्रिया करता है।
ग्रह अनुकूल हो जाएँ ,ईश्वर की कृपा हो जाये तो क्या क्या प्राप्त हो जाता है लोगो को। जिस परमपद की कल्पना न की हो ,जिस स्वास्थ की आशा ना की हो ,जिस की कभी स्वप्न में इक्षा की हो ,,,,सब सब पूरे होने लगते हैं। पत्थर छू ले सोना बन जाये। व्यक्ति पेड़ के नीचे सोया हुआ रहता है ,ऊपर पहले आम की कामना तक ना की हुई हो ,वो पका आम उसी वक़्त उसके मूँह में टपक जाता है जब वह शायद जमाहीं लेने को खोलता है। कहने का आशय है कि आश्चर्य जनक रूप से काम यूं बनने लगते हैं कि व्यक्ति सोचता है कि ये तो उसकी क़ाबलियत है। और अहंकार दबे पांव प्रवेश करने को आतुर हो जाता है। .......
सुख- दुःख चक्र यूं जीवन को आगे ठेलता जाता है .
अपनी गर्व अपनी जिंदगी की पूँजी को बिखरते हुए देखना ,रिश्तों को रंग बदलते महसूस करना। स्वयं को मिटते हुए /गिरते हुए देखना ,जिन्दा नरक होते हैं। दुःख के क्षण कठिन होते हैं पर सबसे बड़े शिक्षक होते हैं। ये जो सीखा जातें हैं वो कोई पुस्तक कोई अध्यापक नहीं पढ़ा सकते हैं। विपत्ति काल में व्यक्ति का अहम पूरी तरह नष्ट हो जाता है ,जितना ज्यादा दुखों के भवंर में फंसता है उतना उसका स्वयं अहम अहंकार का नाश होता जाता है। ना दिन की होश रहती है ना रात की ,न भूख न प्यास। तपस्वी हो व्यक्ति प्रभु भक्ति में डूब जाता है। ईश्वर के समक्ष घिघियाते हुए वो अपनी भूलो की क्षमा याचना करता है . दुःख दुर्दशा दुर्दिन व्यक्ति को निचोड़ लेते हैं। जीवन - सार सार को गहि रहे ,थोथा देय उड़ाय।
कभी तो ईश्वर को व्यक्ति पर दया आती है ,कभी तो ग्रहों के चाल बदलते हैं। कभी कभी हताशा की घनी बदली के बीच से चमकता हुआ सूरज भी दिख पड़ता है। एक दो काम कुछ बन जाते हैं तो महसूस होता कि शायद किस्मत कभी दरवाजा भी खोल देगी। दुखों के कीचड में स्नान कर व्यक्ति कमल की ही मानिंद निर्मल हो पल्लवित होता है। ज्यूँ तप कर तपस्वी तेजस्वी हो जाता है ,घनघोर विपदा के पश्चात व्यक्ति वैसा ही धुला- पुछा स्वच्छ निर्मल हो विकसित होता है। किस्मत के मारे को कंगले को जो भी थोड़ी सी कृपा मिलती है वह नतमस्तक हो शुक्रिया करता है।
ग्रह अनुकूल हो जाएँ ,ईश्वर की कृपा हो जाये तो क्या क्या प्राप्त हो जाता है लोगो को। जिस परमपद की कल्पना न की हो ,जिस स्वास्थ की आशा ना की हो ,जिस की कभी स्वप्न में इक्षा की हो ,,,,सब सब पूरे होने लगते हैं। पत्थर छू ले सोना बन जाये। व्यक्ति पेड़ के नीचे सोया हुआ रहता है ,ऊपर पहले आम की कामना तक ना की हुई हो ,वो पका आम उसी वक़्त उसके मूँह में टपक जाता है जब वह शायद जमाहीं लेने को खोलता है। कहने का आशय है कि आश्चर्य जनक रूप से काम यूं बनने लगते हैं कि व्यक्ति सोचता है कि ये तो उसकी क़ाबलियत है। और अहंकार दबे पांव प्रवेश करने को आतुर हो जाता है। .......
सुख- दुःख चक्र यूं जीवन को आगे ठेलता जाता है .
yahi jindgi hai ....bahut sundar lekh aur lekhan ....
जवाब देंहटाएंDhanywad Upasna ji .
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