गुरुवार, 31 जुलाई 2014

पापी,मनहूस

पापी
पूरा गांव बाढ़ के चपेट में आ गया था ,बहुत सारे तो बह गए। जो बचे थे वो नौका में बैठ जा रहें थें। कुछ श्रेष्ट व विशिष्ट लोग ही अब बच रहें थे जो अपनी ख़ास नौका में बस जाने ही वाले थे कि एक औरत दौड़ती हुई आई और नाव पर सवार हो गयी। समवेत स्वर उभरा "अरे ये अधम वेश्या ",इस पापिन को ना बैठाओ। इसके दुर्भाग्य और पाप हमें भी ले डूबेगी। पीठ पर बच्चे को बांधी बेबस ने कातर स्वर से एक कोने में बैठ जाने और जान बचाने की गुहार लगाई। घृणा के कई बोल उभरे "उफ़! एक तो कुकर्मी उसपर पाप की गठरी पीठ पर,भला नैया       कैसे झेलेगा इनके बोझ को"। अब वह आक्रामक हो उठी ,सभी की तरफ ऊँगली घूमाते हुए बोली "तुमसब में ऐसा कौन है जो मेरे द्वार ना आया होगा,ये गठरी भी तुमलोगो की ही है जिसे मैं ढो रहीं हूँ " . ग्राम पुरुषों को अब क्रोध आ गया उफनती नदी में ही उन्होंने उसे फ़ेंक दिया। संयोग से एक टूटे दरवाजे का लकड़ी का तैरता हुआ पल्ला उसके हाथ लगी ,बच्चे को लिए दिए वह बैठ गयी। उसने मुड़ कर नौका की तरफ देखा ,अचानक तेज धार में नौका पलटी और सारे श्रेष्ठ जनों की जल समाधी हो गयी......... जाने किसके भाग्य से अब तो तैर रही थी।




मनहूस 
बड़ी भयानक रात थी,गरजती और बेहद कड़कती। पहाड़ों पर यूं भी बारीश कहर ही बन टूटती है। माता के दर्शनों को ऊपर चढ़ता एक जत्था एक ढाबे में बारिश से बचने हेतु शरण लेने घुसा। आसमान फटा जा रहा था ,बिजली बूंदो से होड़ ले रही थी। तभी एक महिला गोद में छोटे बच्चे को लिए बचते बचाते उसी आश्रय में घुसी। ढाबे वाला उसे जानता था यूं कहें उसपर दाल नहीं गली थी सो खुन्नस भी रखता था। सबकी नजरें अब उसपर टिकी थी ,मोटे पेट वाले ने माला फेरते चुहलबाज़ी की कौन है बे ये ?ढाबेवाले ने चाय पकड़ाते कहा "बड़ी ही मनहूस है मालिक ,जन्मते माँ को खा गयी ,पालने वाले पिता को भी ना छोड़ा और अभी कुछदिन पहले ही पति को भी चबा डाला है"। " राम राम ,ऐसी प्रलय की रात में ऐसी मनहूस की संगत" माला फेरने की गति बढ़ गयी थी। दूसरे ने हाँ में हाँ मिलाया ,इसकी बदनसीबी कहीं काल ना बन जाए हमसब के लिए। औरत सिमटी हुई याचना करने लगी "बच्चा बीमार है दया! बड़े लोग"। ढाबे वाले की कुटिलता पूरे ढाबे पर फैल गयी। सबने उसे धक्के दे जबरदस्ती वहां से निकल बाहर कर दिया ,घिसटती हुई वह बाहर गिरी ही थी कि तभी जोरो से बिजली चमकी और लपलपाती हुई ढाबे पर गिर गयी। 
उस ढाबे में उसदिन कोई नहीं बचा था अलबत्ता महिला और बच्चा जरूर बच गए थे। अभिशप्त ढाबा खंडहर बन आज भी अपनी बेनूरी और बदनसीबी पर रो रहा है। बिजली से झुलसी काली दीवारे ,टूटे छत और वीरनापन आज भी अपनी मनहूसियत बयां करती हैं।

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