रविवार, 20 जुलाई 2014

नीयत और नियती

पिज़्ज़ा--
"पैसे पेड़ पर नहीं उगते बहादुर , अभी नहीं दे सकती मैं"|
बहादुर मुह लटकाये सोचने लगा कि अब बीबी के इलाज़ के पैसे कहाँ से लाए |
तभी बेटे की आवाज आई "क्या मम्मी आपने वेज पिज़्ज़ा मंगा दिया , आप भूल गयीं कि मैंने नान वेज पिज़्ज़ा के लिए कहा था | दूसरा आर्डर करदो ना प्लीज"|
ठीक है बेटा , बहादुर को बोल दो , लेता आएगा मार्केट से |( vinay ji )
बहादुर ने पांच सौ का note जेब में रख लिया और दुखी मन से बाजार चला गया ! बीमार पत्नी की शक्ल आँखों के सामने घूम रही थी !
एक बार सोचा ,कह दूंगा कहीं गिर गया ,पिट लूंगा थोड़ा ! पर दवा तो आएगी !
पैर केमिस्ट की दूकान की तरफ मुड़ गये ! दूकान दार से दवाई ली और पैसे दे दिए लेकिन दूकान से उतरा नहीं !
ऐ भाई ,नहीं चाहिए पैसे वापिस करो ! नाम भूल गए हैं दवाई का दुबारा आएंगे !



पिज़्ज़ा ( नीलेश की कहानी के आगे )

दवाई दुकान से बहादुर बिना दवाई लिए निकल तो गया पर उसके दिलो दिमाग पर भावनाओं का अंधड़ चलने लगा। मन विचलित हो तरंगित होने लगा,उद्वेलित आवेशित मन कभी ऊपर कभी नीचे होने लगा। अपने अस्तित्व पर उसे शर्म आने लगी कि बीमार पत्नी की दवाई लेने लायक भी वह नहीं है। सामाजिक असमानताओं ने उसके जमीर की नींव हिला दी। जेब में हाथ डाला तो नोट अभी भी कसमसा ही रहा था ठीक उसके नीयत और नियती की तरह। पिज़्ज़ा की दुकान तो दिख ही नहीं रही ,दिल कब हावी हो कदमो को घर के दरवाजे पर खड़ा कर दिया था। घर से आ रही थी सिर्फ मनहूस सन्नाटे की गूंज ,दिल बैठ गया। अंदर गरम चाय की जगह बीवी की ठंडी लाश थी प्रतीक्षारत। तभी फोन की जन्नाटेदार चीखों ने उसकी तन्द्रा भंग की ,मेमसाब थी। फोन से अनवरत तोहमतें और लानते बईमान -धोखेबाज ,चोर की शक्लों में शब्द पूरे कमरे को अपने आरोपों से घेर रहीं थीं। बहादुर की आँखों से बेबसी ,दुःख ,ग्लानि अनवरत बिन मौसम बरसात कर रही थी। जेब में पड़ा नोट अपनी सच्चाई और ईमानदारी की दलीले देने को गला फाड़ रहा था। हमेशा की तरह उसकी आवाज कोई नहीं सुन रहा था। 












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